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हमारे गांव : नेपथ्य और निर्वासन की पीड़ा


आल्विन टाफ्लर ने द थर्ड वेव पुस्तक में लिखा है कि -” हमारे जीवन में एक नई सभ्यता का उदय हो रहा है। दृष्टिहीन लोग हर जगह इसके आगमन को रोकने का प्रयास करते रहे हैं। यह नई सभ्यता अपने साथ नए पारिवारिक संबंध, कामकाज के नए तौर-तरीके ,प्यार और जीने के नए अंदाज़, नई वैज्ञानिक व्यवस्था, नए राजनीतिक संघर्ष और इन सबसे बढ़कर एक नई बदली हुई चेतना ला रही है। नई सभ्यता का उदय हमारे जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है।”

मेरे बाबा देशी चिकित्सा का भी काम करते थे, वह भी धर्मादा। इसे वे पुण्य का काम मानते थे। हर साल अगल -बगल के गांवों से एक दो साथी वैद्य आ जुटते ।पांच -सात दिनों तक तरह -तरह के चूरन बनते। काट पीट होती।खल बट्टा बजते । कपड़छन होती।जिसमें से आनंद भैरव, संजीवनी, वात विध्वंस रस आदि की गोलियां आकार लेती। सितोपलादि चूर्ण बनता। भृंगराज का तेल, आंवला का तेल गमकता। यही नहीं चंदनार का तेल शीतलता देता। नारायण तेल, महालाक्षादि तेल ठंडी में गर्म रखते थे। महाविषगर्भ तेल,पंचगुण तेल सिद्ध कर लिए जाते। बाबा की उमर के गोरा बाबा जो जाति के आदिवासी थे। बड़े जानकार थे। बिलारी कंद, महुआ मूसर, मुलहठी, असगंध, शतावरी और न जाने कितनी जड़ें खोद -खाद लाते। जिससे भांति -भांति के रस रसायन बनते। पांच सात मीलों से चलकर लोग दवाएं लेने आते। अंग्रेजी दवाएं केवल बड़े कस्बों में या शहरों में मिलती थीं। आज तो इन्हीं अंग्रेज़ी दवाओं की धूम मची है।

मेरा गांव जमुनिहाई ही नहीं बल्कि हजारों लाखों गांव हैं ।आजादी के तत्काल बाद उसके यथार्थ को उसकी समस्याओं को हम दिल के अंदर तो पाते हैं लेकिन इसकी कोई फोटो या तस्वीर हमारे पास नहीं है। गांव में स्कूल नहीं था।सिंहपुर, रौंड, पुरवा के स्कूल जाने के लिए भरी बरसात में उफनते नालों को पार करने के लिए बिनगी(पेड़ों को काटकर, नाले के आरपार उन्हें बिछाकर बनाया गया एक तरह का पुल) का इस्तेमाल किया जाता था। ये समूचे रूप केवल कथा -कहानियों में उनके स्मरण चित्रों की तरह मिलते हैं। खासकर याद करूं तो प्रेमचंद की कहानियों में लेकिन वह भारत की आज़ादी के पहले के गांव थे ।आजादी के बाद के गांव देखना है तो फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य में इसे आसानी से खोजा और देखा जा सकता है ।कुछ कहानियां मुझे याद आ रही हैं-उसमें तीसरी कसम ,लाल पान की बेगम, पंचलाइट, ठेस, रसप्रिया जैसी कहानियां हैं।उनके उपन्यास मैला आंचल ,परती परिकथा नागार्जुन के उपन्यास बाबा बटेसरनाथ ,बलचनमा हम देख सकते हैं। गांव और अंचल के तमाम गांव मुझे जिस रूप में मिलते रहे हैं जिनकी आत्मिक छवियां मेरे भीतर मौजूद हैं। वही धूल भरी पगडंडियां, झुरमुट ,नाले खेत सब पेड़ चाहे आम के हों नीम, जामुन कैथा के हों बबूल के हों या कोई अन्य। उस दौर में हमारे गांव में अर्जुन (देसी नाम कहुआ ) बरगद -पीपल हुआ करते थे।


यहां के लोग किस तरह जीते थे उसके बारे में हमारे कथा संसार में नॉस्टेलजिया जैसा है जो अतीत की स्मृतियों में छपा है। ऐसा नहीं है कि इस दौर में वही गांव है जो पूर्व में हुआ करते थे। उनका हुलिया काफी बदल चुका है सिंचाई के साधन के रूप में नालों में बंधान के रोपा लगने लगे हैं ।अब कूबत भर पानी का इंतजाम कर लिया जाता है ।गांव में होने वाली फसलें अब याद करने की चीज़ें हैं। कोदो, कुटकी, सामा, संवई, ज्वार बाजरा अलसी भी। कहां- कहां क्या- क्या बदल गया है । राजनीति ने सभी की घुटकी पकड़ रखी है। गांव अब भी नेपथ्य में हैं। वे सभी ओर से निर्वसन और निर्वासन की यातना झेल रहे हैं। शहर चमचमाहट में आ गए हैं और गांव के विकास की गर्दन को छल कपट और बल से रेता जा रहा है ।हम धीरे -धीरे गांवों के यथार्थ को भूलते जा रहे हैं। डी एम मिश्र के दो शेर सुनें।”किससे कहूं कि खेतों से हरियाली गायब है/मेरे बच्चों के सामने से थाली गायब है/गांवों का उत्थान देख कर आया हूं/मुखिया का दालान देख कर आया हूं/”गांव का नेपथ्य जितना त्रासद था वर्तमान उतना ही उत्तेजक जद्दोजहद भरा और उसकी विकास यात्रा उतनी ही हास्यास्पद और व्यंग्यात्मक है। विकास की भस्मी लिए हम सरपट दौड़ते जा रहे हैं।लुटेरों का समूह केवल गांवों के अर्थतंत्र भर को नहीं तोड़ रहा बल्कि गांव के सपनों को चकनाचूर कर रहा है। ग्रामीण जीवन की खुशियां और उनका लोक भी लूटा जा रहा है।

पूरा देश एक तरह से नशे में और एक तरह की नींद में गाफिल है । एक घुप्प अंधेरे में गांव को बार-बार ठेला जा रहा है। पूर्व में जितना शोषण उत्पीड़न था। अन्याय और दलन था। उसके रूप परिवर्तित हो गए हैं। एजेंसियां बदल गई हैं। आंकड़ों के हवाई जहाज उड़ाए जा रहे हैं। गांवों में भी पर्याप्त मात्रा में जहर परोस दिया गया है। लोकतंत्र को ही नहीं गांवों को भी विकास की आंच में भून कर खाए जाने का भारी भरकम षडयंत्र जारी हैं। हर जगह मनुष्यहीनता की दुर्गंध फैल चुकी है ।फिलहाल गांव का सही-सही नक्शा बनाने में हम कन्वेंस नहीं हो पा रहे हैं। मैं हर चीज़ को विधेयात्मक रूपों में चाहूं तो ग्रहण करूं लेकिन निषेध पक्षों को कोई कहां दफ़न करे।गांवों का सार्वजनिक वध विकास के नाम पर, विकास के झांसों के नाम पर अनवरत जारी है । यह सही है कि इस दौर में पर्याप्त जागरूकता बढ़ी है। चुनाव प्रक्रियाओं ने ललक जागृत की है। बिजली प्रबंधन हुए हैं। विकास के सपनें हैं। अंत में एक छोटी सी कविता का अंश पढ़ें।”एक चाह है कि/ अपनी सांसों से/ तुम्हारी सांसों में /महकता रहूं/.. एक चाह है कि/ समंदर में डूबकर भी /उसमें सीप सा/ बना रहूं/” गांव की चाहत को हमें किसी तरह कमतर रूप में नहीं आंकना चाहिए।

Sevaram Tripathi

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